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अपा॑य्य॒स्यान्ध॑सो॒ मदा॑य॒ मनी॑षिणः सुवा॒नस्य॒ प्रय॑सः। यस्मि॒न्निन्द्रः॑ प्र॒दिवि॑ वावृधा॒न ओको॑ द॒धे ब्र॑ह्म॒ण्यन्त॑श्च॒ नरः॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

apāyy asyāndhaso madāya manīṣiṇaḥ suvānasya prayasaḥ | yasminn indraḥ pradivi vāvṛdhāna oko dadhe brahmaṇyantaś ca naraḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अपा॑यि। अ॒स्य। अन्ध॑सः। मदा॑य। मनी॑षिणः। सु॒वा॒नस्य॑। प्रय॑सः। यस्मि॑न्। इन्द्रः॑। प्र॒ऽदिवि॑। व॒वृ॒धा॒नः। ओकः॑। द॒धे। ब्र॒ह्म॒ण्यन्तः॑। च॒। नरः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:19» मन्त्र:1 | अष्टक:2» अध्याय:6» वर्ग:23» मन्त्र:1 | मण्डल:2» अनुवाक:2» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब नव चावाले उन्नीसवें सूक्त का आरम्भ है। इसके प्रथम मन्त्र में विद्वानों के विषय का वर्णन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मनीषिणः) मनीषी मन जीते हुए (ब्रह्मण्यतः) बहुत धनकी कामना करनेवाले (नरः च) और नायक अग्रगन्ता मनुष्यो ! (यस्मिन्) जिस (प्रदिवि) प्रकृष्ट प्रकाश में (वावृधानः) बढ़ा हुआ (इन्द्रः) सूर्य (ओकः) स्थान को (दधे) धारण करता है उसमें (सुवानस्य) उत्पद्यमान (प्रयसः) मनोहर (अस्य) इस (अन्धसः) अन्न को (मदाय) आनन्द के लिये तुम लोगों ने (अपायि) पान किया उस सबको हम लोग भी ग्रहण करें ॥१॥
भावार्थभाषाः - विद्वान् जन जिसमें बढ़े हुए विद्या को धारण करते हैं, उसमें हम लोग भी बैठें, इस विज्ञान को स्वीकार करें ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वद्विषयमाह।

अन्वय:

हे मनीषिणो ब्रह्मण्यन्तो नराश्च यस्मिन् प्रदिवि वावृधान इन्द्र ओको दधे तत्र सुवानस्य प्रयसोऽस्याऽन्धसो मदाय युष्माभिरपायि तद्वयमपि गृह्णीयाम ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अपायि) (अस्य) (अन्धसः) अन्नस्य (मदाय) आनन्दाय (मनीषिणः) जितमनस्काः (सुवानस्य) उत्पद्यमानस्य (प्रयसः) कमनीयस्य (यस्मिन्) (इन्द्रः) सूर्यः (प्रदिवि) प्रकृष्टप्रकाशे (वावृधानः) वर्द्धमानः (ओकः) स्थानम् (दधे) दधाति (ब्रह्मण्यन्तः) ब्रह्म महद्धनं कामयमानाः (च) (नरः) नेतारः ॥१॥
भावार्थभाषाः - विद्वांसो यस्मिन् वर्द्धमाना विद्यां दधति तत्र वयमपि स्थित्वैतद्विज्ञानं स्वीकुर्य्याम ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात विद्वान, सूर्य, दाता व दक्षिणा यांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागील सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे.

भावार्थभाषाः - विद्वान लोक जी वर्धित विद्या धारण करतात त्यात आम्हीही स्थित असावे व विज्ञानाचा स्वीकार करावा. ॥ १ ॥